भारत में धर्मनिरपेक्षता पर चर्चा कीजिए।

भारत में बैंटवारे और उसके साथ हुए सांप्रदायिक विध्वंस के बाद पाकिस्तान एक बड़े मुस्लिम देश के रूप में उभर कर सामने आया, जिसे देखकर भारत में हिंदू राष्ट्रवादी प्रेस माध्यम से कई भागों में इस बात पर जोर देना शुरू कर दिया कि भारत में कोई मुसलमान रहना चाहिए।
यह हिंदू राष्ट्रवाद का उदय था, जिसके साथ-साथ और अधिक स्पष्ट रूप से, दूसरा और अधिक समावेशी राष्ट्रवाद भी उभरा, जिसने भारतीय समाज के मिश्रित स्वरूप पर बल दिया और भारत के इतिहास तथा आत्म-चेतना में हिंदू तत्त्व को उस प्रकार की प्रमुखता देने से इन्कार किया। इसे बाद में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद' कहा गया, जिसे नेहरू ने 'वास्तविक या रतीय राष्ट्रवाद कहा। यह भारतीय संविधान का राष्ट्रवाद था।
राष्ट्रीय संविधान में धर्मनिरपेक्ष भारतीय राज्य व्यवस्था के भविष्य निरूपण के बारे में राष्ट्रीय मतैक्य प्रतिबिंबित होता है जो राष्ट्रीय संग्राम के दौरान उत्पन्न हुआ था। यहाँ इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि चर्च और शासन के विलगाव के अर्थ में धर्मनिरपेक्षता भारत में सगिक नहीं है। भारत में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है विभिन्न विश्वास्रों के अनुयायी नागरिकों के हाथ व्यवहार करने में राज्य द्वारा निष्पक्षता का बर्ताव।
पश्चिम में धर्मनिरपेक्ष समाज का उदय उत्पादन की आधुनिक औद्योगिक प्रणाली की सद्धि वैज्ञानिक ज्ञान की प्रगति के परिणामस्वरूप हुआ। वैज्ञानिक ज्ञान की वृद्धि से तो धार्मिक और वैज्ञानिक जगत के संज्ञानात्मक कार्य में कमी आती है,
वहीं आधुनिक औद्योगिक समाजों हे उदय के साथ विभेदीकरण की एक प्रक्रिया शुरू हो गई है जिसमें समाज के विविध हिस्से और उनके कार्य ज्ञान के आधार पर और अधिक विशिष्टीकृत होते जा रहे हैं। इस प्रकार मारत में धर्मनिरपेक्षता की धारणा पश्चिम से अलग है।
आदर्श धर्मनिरपेक्षता से विसामान्या डॉ अम्बेडकर के इस आग्रह पर आधारित थीं कि धर्म के प्रभाव, जैसे जाति प्रथा, इसमें में इतने अधिक हैं कि वे जन्म से लेकर मृत्यु तक, जीवन के हर पहलू को समेटते है।
कहा कि जब तक सरकार के पास अधिकार नहीं होगा तब तक हमारे विधानमंडल किसी भी सामाजिक उपायों का अधिनियमन करना असंभव होगा। गाँधीजी का भी यह या कि कुछ मामलों में धर्मनिरपेक्ष कानून का प्रयोग सामाजिक बुराइयों से निपटने किया जा सकता है।
भारत की धर्मनिरपेक्षता पर भारतीय जनता के अद्वैतवादी विश्वदर्शन के प्रभा के साथ-साथ भारत के बहु-समाज और भारत के अनुभव को प्रभावों से भी धारण करते है।
अत 'छत्र संकल्पना' के रूप में इसका वर्णन बिल्कुल सही है। जिसका अर्थ है सार्वभौमि सहनशीलता पर आधारित सर्व-समावेशी संकल्पना जिसमें राज्य को समाज के सुधारक की भूमिक सौपी गई है जिसमें धर्म सामाजिक संरचना और सामाजिक बाबहार को निर्धारित करता है।