मीराबाई पर लघु निबंध
मीराबाई का संसार लौकिक न होकर पारलौकिक था। यद्यपि मीराबाई के आरम्भिक जीवन में लौकिक जीवन जीना पड़ा था। फिर भी पति भोजराज की अल्पायु में मृत्यु हो जाने के कारण मीराबाई का मन वैरागी बन गया। मीराबाई को सामाजिक बाधाओं और कठिनाइयों को झेलते हुए अपने आराध्य देव श्रीकृष्ण की बार बार शरण लेनी पड़ी थी। जीवन के अन्तिम समय अर्थात् मृत्यु सन् 1546 तक मीराबाई को विभिन्न प्रकार की साधना करनी पड़ी थी।
मीराबाई द्वारा रचित काव्य रूप का जब हम अध्ययन करते हैं तो हम यह देखते हैं कि मीराबाई का हदय पक्ष काव्य के विविध स्वरूपों से प्रवाहित है। इसमे सरलता और स्वच्छन्दता है। उसमें भक्ति की विविध भाव भांगिमाएँ हैं। उसमें आत्मानुभूति है और एक निष्ठता की तीव्रता है। मीराबाई श्रीकृष्ण की अनन्य उपासिका होने के कारण और किसी को तनिक भी कुछ नहीं समझती हें। वे तो मात्र श्रीकृष्ण का ही ध्यान करने वाली हैं। वे श्रीकृष्ण की मनोहर मूर्ति को अपने हदय में बसायी हुई हैं-
मेरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरा न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरी पति सोई।
मीराबाई का काव्यस्वरूप का कलापक्ष का सौष्ठव भाषा की विविधता से कहीं सरस, सुबोध और कहीं जटिल तथा दूर्बोध है। इसका मुख्य कारण है- मीरा की भाषा के प्रयोग की विविधता, और शैली की असमानता। मीराबाई की भाषा में ब्रजभाषा, राजस्थानी, पंजाबी खड़ी बोली, गुजराती आदि भाषाओं के शब्द प्रयुक्त हैं, जो कहीं सहजतापूर्वक हैं तो कहीं अतीव दुर्बोध भी हैं। सहज भाषा शैली का एक प्रयोग देखिए-
यही विधि भक्ति कैसे होय।
मन को मैरन हियते न छूटी, दियो तिलक सिर धोया।।
अथवा
मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई।।
दुर्बोध भाषा शैली का एक उदाहरण प्रस्तुत हैं-
सुण्यारी म्हारे हरि आवेगा आज।
म्हैलाँ चढ़ चढ़ जोवाँ सजनी कब आवाँ महराज।।
इस प्रकार की भाषा शैली के अन्तर्गत मीराबाई के कहावतों और मुहावरे के लोक प्रचलित स्वरूपों को अपनाया है। अलंकारों और रसों का समुचित प्रयोग किया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मीराबाई एक सहज और सरल भक्तिधारा के स्रोत से उत्पन्न हुई विरहिणी कवियित्री है। उनकी रचना संसार से आज भी अनेक काव्य रचियता प्रभावित हैं। भक्ति काल की इस असाधारण कवयित्री से आधुनिक काल में महादेवी वर्मा इतनी प्रभावित हुई कि उन्हें आधुनिक युग की मीरा की संज्ञा प्रदान की गई। इस प्रकार मीराबाई का प्रभाव अद्भुत है।