Sociology: भारतीय समाजशास्त्र के ऐतिहासिक आधार का वर्णन कीजिए।
अब्राहम के अनुसार समाजशास्त्र 'मानवतावादी सामाजिक विज्ञान है।
समाजशास्त्र, जो भारत में सामाजिक मानवविज्ञान से निकटता से जुड़ा हुआ है, विश्व के दूसरे हिस्सों की तरह इस देश में भी अपेक्षाकृत ठीक ढंग से परिभाषित अध्ययन क्षेत्र नहीं है। अब्राहम के अनुसार समाजशास्त्र 'मानवतावादी सामाजिक विज्ञान है।
इसलिए इसे किन्छों विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियों में खास मानव समूहों के विशेष विचारों, आदर्शों, मूल्यो, महत्वाकांक्षाओं, समस्याओं और कठिन परिस्थितियों का ध्यान रखना होगा। हालाँकि मानव सबंधों के बारे में यह सामान्य नियम ही चाहता है।
इसलिए समाजशास्त्र प्राकृतिक विज्ञान के साँचे में फिट नहीं बैठता और विभिन्न देशों में इसका विकास एक अलग तरीके से होता है या वहाँ के विशेष ऐतिहासिक अनुभवों और सांस्कृतिक स्वरूप का प्रभाव उस पर होता है।
भारत में तथ्यों पर ध्यान न देने के कारण भारत में कोई भी समाजशास्त्र की भारतीय परंपरा के बारे में पर्याप्त प्रमाण के साथ बात नहीं कर सकता वरन् समाजशास्त्र की जर्मन या अमेरिकी परंपरा पर बात कर सकता है।
ऐसा इसलिए है, क्योंकि भारतीय समाजशास्त्री अपने शिक्षण और अनुसंधान में पश्चिमी अवधारणाओं, विधियों और सिद्धांतों पर ही जोर देते हैं बजाय इसके कि वे अपने देश में इनका विकास करें।
इस संबंध में समाजशास्त्रियों के कार्यकलाप भौतिकविज्ञानियों या जीवविज्ञानियों और यहाँ तक कि अर्थशास्त्रियों से बहुत अलग नहीं है। लेकिन समाजशास्त्रियों के पास चिंता का एक खास कारण है। मानवविज्ञान में एक तरफ आँकड़ों का संबंध और दूसरी तरफ सकल्पनाएँ, विधियों और सिद्धांत प्राकृतिक विज्ञान से अलग होते हैं। जब कोई भारतीय भौतिकविज्ञानी कोई नियम बनाता है, तो ऐन्द्रे बेटेली उस सिद्धांत को उस सामान्य नियम या सिद्धांत की तरह मानते हैं जैसे कि साहा समीकरण या चंद्रशेखर सीमा को मानते हैं ।
वे मानते है कि यह भौतिक विज्ञान में सामान्य उपकरणों के स्टॉक का उपयोग विवादास्पद नहीं होता , किन्तु मानवविज्ञान में यह विवबादस्पद होता हैं । यह सत्य है कि
भारतीय समाजशास्त्रियों को उतना कठिन संघर्ष नहीं करना पड़ा जितना कि यूरोप में उनके पूर्ववर्तियों को 19वीं शताब्दी में समाजशास्त्र को एक गंभीर बौद्धिक विषय के रूप में इसकी वैधता स्थापित करने में समय लगा।
लेकिन पश्चिमी मार्गदर्शियों पर अतिनिर्भरता के समस्याएँ आ रही थी और जिस तरह की सामाजिक क्रांति और परिवर्तन हो रहे थे उनकी वैज्ञानिक क्रांति और वाणिज्यिक क्रांति के लिए हुए आंदोलन में बौद्धिक क्राति आकार लेने लगी थी।
1789 की फ्रांस क्रांति और औद्योगिक क्रांति ने जर्जर होती सामंतवादी व्यवस्था वाले राजतंत्र और चर्च को एक ऐसी हवा दी जिससे लोगों की महत्वाकांक्षाओं और व्यक्तिगत उपलब्धियों के आख्यान और उनके दुखों की कथा आरंभ हो गई।
इस नई परिस्थिति में मूल्यों और सामाजिक व्यवस्था की अनिश्चितता थी। यह सामान्य तौर पर एक तरह की राज्ञानात्मक प्रणाली थी जिसे यूरोपियन संदर्भ में औद्योगिक मध्यवर्ग ने पारपरिक विश्व परिदृश्य और साथ ही ज्ञान के आयामों के विखंडन की समस्या से उबरने के लिए विश्व परिदृश्य के तौर पर प्रतिक्रिया के रूप में विकसित करने का प्रयास किया लेकिन जब भारत में समाजशास्त्र आया तब औद्योगिक मध्यवर्ग विकसित नहीं हुआ।