फ़ेक्टरियों में जहाँ कि अधिक मात्रा में व्यावसायिक उद्देश्य से साबुन बनाया जाता है , वहीं इस विधि का प्रयोग होता है।
साबुनीकरण से तात्पर्य है क्षार के प्रयोग से चर्बी का तोड़ा जाना तथा उसके फलस्वरूप उत्पन्न हुये वसीय अम्लों द्वारा क्षार के लवण बनाना ।
यह लवण साबुन होते हैं। (Decomposition of fats by the action of an alkali and production of salts of fatty acide is called saponification . The resultant salts are called soaps.)
साबुन बनाने के लिये निम्नलिखित दो विधियों का प्रयोग होता है-
(क) गर्म विधि (Hot Process
(ख) ठण्डी विधि (Cold Process)
(क) गर्म विधि (Hot Process)-फ़ेक्टरियों में जहाँ कि अधिक मात्रा में व्यावसायिक उद्देश्य से साबुन बनाया जाता है , वहीं इस विधि का प्रयोग होता है। इसमें निम्नलिखित तरीके से साबुन बनता है- किसी भी प्राणिज या वानस्पतिक मूल की वसा को गर्म करके पिघलाया जाता है तथा उसमें से अशुद्धियाँ अलग कर दी जाती हैं .
साफ वसा को भाप द्वारा गर्म करते हैं तथा उसमें दस से पन्द्रह प्रतिशत कास्टिक सोडा का घोल डाला जाता है। दोनों पदायों की आपसी क्रिया से साबुनीकरण होने लगता है। इस प्रक्रिया को दो तीन दिन तक होंने देते हैं जब तक कि लगभग 90-95 प्रतिशत तक साबुनीकरण हो जाए। ऐसा होने पर बॉयलर में पाये जाने वाले मिश्र में साबुन ,गिलश्रीन ,बचा हुआ सोडा ,पानी तथा अशुद्धियाँ पाई जाती हैं।
अगले चरण को Salting Out कहते हैं तथा इसके अंतर्गत इस घोल में नमक (NaCl) डाला जाता है । इसके फलस्वरूप गाढ़ा पिथला हुआ साबुन अलग होकर ऊपर आ जाता है। नीचे का बचा हुआ पदार्थ नमक, ग्लिसरीन, सोडा तथा कुछ अशुद्धियों का मिश्रण होता है और इसे स्पैन्ट लाई (Spent lye) कहते हैं।
मिश्रण को गर्म करना बन्द कर दिया जाता है। साबुन को ऊपर जमा होने दिया जाता है तथा धीरे -धीरे नीचे की स्पेन्ट लाई को अलग कर लेते हैं। इसमें से विशेष विधि द्वारा ग्लिसरीन अलग कर ली जाती है।
ऊपर के साबुन की सतह में अभी भी कुछ असावुनीकृत वसा बची रहती है इसलिये और सोडा डालकर इसे फिर से उबालते हैं। फिर मिश्रण को कुछ समय पड़ा रहने देते हैं जिससे लाई नीचे चली जाती है तथा ऊपर के साबुन को अलग कर फिर से उबाला जाता है और फिर कुछ समय के लिये पड़ा रहने देते हैं। अब यह मिश्रण चार सतह बना लेता है । सबसे ऊपर झाग होती है जिससे निकाल देते है ,फिर स्वच्छ साफ साबुन की सतह होती हैं । उसके नीचे गाढ़े रंग का अशुद्ध साबुन होता हैं । जिससे सस्ते घटिया किस्म के साबुन बनाएं जातें हैं तथा सबसे नीचे क्षार का घोल होता है । नंबर दो की साफ साबुन की सतह को अलग कर उसमें आवश्यकतानुसार सोडियम सिलिकेट ,रंग तथा सुंगध आदि मिलाते हैं तथा साँचो में डालकर ठंडा करके टिक्कियाँ बना ली जाती हैं तथा पैक की जाती हैं ।
(ख) ठण्डी विधि (Cold Process)- गर्म विधि की अपेक्षा यह बहुत सरल विधि हैं । इससे साबुन शीघ्र तथा आसानी से बनता है और उतम किस्म का होता हैं । इस विधि के लिए किसी विशेष प्रकार के उपकरणों की जरूरत नहीं होती इसलिए घरेलू स्तर पर भी साबुन बनाया जाता है ।
विधि - पानी में कॉस्टिक सोडा घोल कर तीन -चार घंटे के लिए छोड़ दिया जाता है । एक लकड़ी के बर्तन बेसन और नारियल के तेल या मेयदे और महुए के तेल को अच्छी प्रकार मिलाया जाता है ।
फिर सोडे के घोल को धीरे -धीरे इसमें डालतें हैं तथा हिलातें हैं । इस प्रक्रिया से ऊष्मा निकलती हैं जिसके फलस्वरूप साबुनीकरण शुरू हो जाता हैं । पूरा सोडा डालने के बाद काफी समय तक हिलाते रहते हैं जिससे की पूरा तेल गाढ़े साबुन में बदल जाए । इसे चिकने कीये हुए बर्तन में डाल कर जमा लिया जाता है तथा तेज चाकू से काट कर उचित आकार की टिकियाँ बनाई जाती हैं । इन टिकियों को कुछ समय खुली हवा में रख कर सुखना आवश्यक होता हैं ।