परंपरा समय के साथ मजबूत होती जाती है और इसकी सीमाएँ धीरे-धीरे सुविकसित होती जाती है।
इसका अर्थ है कि सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति के आधार पर परंपरा विकसित या संकुचित होती है।
इस इकाई में परंपरा एवं आधुनिकता के विषयों पर ध्यान केंद्रित किया गया हैं . परंपरा एवं आधुनिकता को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता और दोनों एक दूसरे से जुड़ी हुई है। लेगा सदाई में परंपरा और आधुनिकता जहां इन संकल्पनाओं एवं प्रक्रमों की मौजूदगी है वहीं ये विकल्प के रूप में नजर आती है। अतः आधुनिकता एक आर्थिक बल है जबकि परंपरा बुनियादी रूप से सांस्कृतिक एवं सामाजिक है।
परंपरा समय के साथ मजबूत होती जाती है और इसकी सीमाएँ धीरे-धीरे सुविकसित होती जाती है। परपरा ऐसी संरचना या विचारधारा है जिसका अपना इतिहास है और जिस पर एक समय जात क्षेत्र का विकास और आत्मसात करने का उत्तरदायित्व है ताकि परंपरा स्वत कायम रहे। बुनियादी रूप से व्यवहार, भाषा, संगीत, कला, छात्रवृत्ति आदि की श्रृंखला है और जो इस तरह से पिछले कई युगों से विकसित होती आई है। समय के साथ-साथ परंपरा कमोबेश एक नियम बन जाती है। अतः आधुनिकता आधारित समाज को आधुनिक समाज कहा जाता है। इस इकाई में हम परंपरा और आधुनिकता पर विभिन्न सैद्धांतिक स्थितियों के बारे में विस्तार से पढ़ेंगे।
परंपरा की संकल्पना पर टिप्पणी करते हुए बताइए कि क्या परंपरा स्थिर रहती है या बदलती रहती है?
उत्तर- परंपरा बुनियादी रूप से व्यवहार, भाषा, संगीत, कला, छात्रवृत्ति आदि की है और जो इस तरह से पिछले कई युगों से विकसित होत्ती आई है। समय के साथ-साथ परंपरा कमोबेश एक नियम बन जाती है। जैसे कि पारंपरिक नियम एवं धर्मग्रंथ जो कि हर नजरिए से परंपरा के पहलू हैं। ये सामाजिक प्रक्रिया को निरंतरता देते हैं और संबद्ध समाज के सदस्यों की आने वाली पीदियों को एक परंपरा देते हैं जिसके अपने विशेष गुण होते है और के सदस्यो कमीज की निरंतरता भी बनी रहती है। इस तरह परंपरा कुछ जीवंत रचनाओं का इस तरह जसमाके बिना समाज का कोई अस्तित्व नहीं। इसके अभाव में यह बिखर जाएगी और टूट जाएगी जिसका परिणाम होगा कि यह अनियमित बन जाएगी।
परपरा निम्नलिखित बातों के इर्द-गिर्द घूमती है और इसमें निम्नलिखित बातों का समावेश होता है.
विशिष्ट प्रक्रिया या पैतृक संपत्ति
उप परंपराएँ जिनका अपना योगदान होता है
ऐतिहासिक पहलू मौखिक या लिखित
अलौकिक पहलू की निश्चित संकल्पना
संपोषण की आर्थिक संरचनाएँ
देसी कला के पहलू
वास्तुकला के तथ्य
सामाजिक क्षेत्रों में छात्रवृत्ति
साहित्य लिखित एवं अलिखित
प्रौद्योगिकीय संरचनाएँ
* आत्म सुरक्षा या अपराध से निपटने में सैन्य शक्ति।
परंपरा समय के साथ मजबूत होती जाती है और इसकी सीमाएँ धीरे-धीरे सुविकसित होती जाती है। इसका अर्थ है कि सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति के आधार पर परंपरा विकसित या संकुचित होती है। इसके अलावा यह पहले से ही मान लेना गलत होगा कि परंपराएँ निरंतर विस्तार की ओर बढ़ती जाती है और प्रगति सदैव रैखिक होती है। यह संभव है कि इनकी अवनति भी हो सकती है। तीसरी स्थिति उत्पन्न होती है जब परंपरा उत्क्रमिक (entropic) प्रवृत्ति को विकसित कर लेती है और कुछ समय के लिए रुक जाती है, इसके बाद तेजी पकड़ती है या इसका महत्त्व कम होने लगता है।
अतः परंपरा की शुरुआत होती है जब कोई विशिष्ट कार्य या गतिविधि समाज के लिए महत्त्वपूर्ण बन जाती है। परंपरा बहु किस्मों की होती है जैसे (संगीत, कला,)आगे अपने उपभाग होते हैं। हालांकि इनमें से कुछ का अध्ययन करना संभव है लेकिल रूप से इनका अध्ययन करने में बहुत वर्षों के शोध की जरूरत है और साकल्यवादी नजरिया पाने के लिए इसके अपेक्षित आँकडे अभी भी पर्याप्त नहीं है। यहाँ हमारे बताने का आशय है कि किसी भी समाज का ऐसा पूर्ण नजरिया अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है जो कि अनेकवादी हों क्योंकि विविध मूल वंशों एवं जातियों के सदस्यों की पर परपरा अलग -अलग होती है। विविध पीढ़ियों से जो प्रक्रम चलता आता है वह स्वत ते है विशिष्ट परंपरा या उप परंपरा बन जाता है।
भारत में ये परंपराएँ शताब्दियों के बाद विकसित हुई हैं। इसके बाद आर्थिक संरचनाएँ ऐसी है जो शताब्दियों पहले शुरू हुई और 1800 में उद्योगीकरण की शुरुआत तक ये पक्का रूप धारण कर चुकी थी। भारतीय परंपरा में वस्तु एवं सेवाओं का विनिमय सेवाओं के भौतिक विनिमय की दृष्टि से शुरू हुआ जिसे जनसाधारण भूपतियों को दिया करते थे। यह परंपरा पद्धति थी और इसने भूमिहीन श्रमिकों का शोषण किया क्योंकि भू स्वामी उन्हें एक तो काम के बदले अपेक्षा से कम समय देते थे और उनसे लंबे समय तक काम करवाते थे। ऐसा करके इन श्रमिकों को कृषि मौसम की समाप्ति पर मुट्ठी भर अनाज मिल जाता था जिससे उनकी रोजी रोटी चलती रहती थी। ऐसे उदाहरण विश्व भर में देखे जा सकते हैं और सामंतवाद भी इसी तरह एक अन्यायपूर्ण पद्धति थी। यह बताना किसी भी बिंदु पर मुश्किल होता है कि परंपराएँ 'अच्छी है या 'बुरी। यद्यपि भारतीय परंपराओं में कुछ पवित्रता है लेकिन सती और दहेज जैसी परंपरा भी इसी का भाग है। अतः परंपरा की कटाई-छटाई करनी जरूरी हो जाती है ताकि यह गलत दिशा में न बढ़ जाए। सदियों के बाद ही कोई परंपरा किसी विशिष्ट आस्था और रीति-रिवाजों का विशिष्ट समूह बन जाती है। ये विश्वास एवं रीति-रिवाज किसी एक परंपरा में विशिष्ट होते हैं और इसमें निहित उप-परंपराओं पर भी समान रूप से लागू होते हैं।
इसके बाद परंपराएँ समान सैद्धांतिक विचारधारा को अपने में बाँध लेती हैं और यह बात भौतिक संस्कृति पर भी समान रूप से लागू होती है। तब संस्कृति से क्या आशय है? परंपरा सामाजिक सच्चाई के प्रति एक विशिष्ट उपागम है जो इसे प्रभावित करती है और यह व्यक्ति विशेष और सामाजिक सच्चाई को दिशा प्रदान करती है। अतः कुछ घुमावदार दशाओं का उल्लेख करने की बजाए अनेकवादी परंपराओं की दृष्टि से बात करना बेहतर होगा क्योंकि ऐसी दशाएँ एक गलत सोच हैं क्योंकि सच्चाई पूरी तरह से इसके अंतर्गत आशंकित नहीं होती।