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काली खांसी रोग के लक्षण, बचाव तथा नियन्त्रण करनें के क्या –क्या उपाय हैं?

जीवाणु स्वसन प्रणाली के ऊपरी भागों को प्रभावित करता है तथा रोग सामान्य  खाँसी की भांति ही शुरू होता हैं ।
 
खांसी

काली खांसी का संक्रमण कारक एक प्रकार का बैक्टीरिया है जिससे हीमोफाइलस परटूसिस (Hemophilus Pertussis) कहते हैं।

 

काली खांसी  (Pertussis or Whooping Cough)- काली खांसी एक तीव्र संक्रामक रोग है जो रोगी के श्वसन संस्थान को प्रभावित करता है । आमतौर पर पाँच वर्ष से कम उम्र के बचों को हो जाता हैं । यदि ठीक उपचार न किया जाय तथा बिगड़ जाय तो यह भी हो घातक सकता है ।

 

संक्रमक कारक (Infectious Agent)- काली खांसी का संक्रमण कारक एक प्रकार का बैक्टीरिया है जिससे हीमोफाइलस परटूसिस (Hemophilus Pertussis) कहते हैं।

उदभवन काल (Incubation Period)  -  इस रोग का उदभवन काल लगभग दस दिन का होता है।

रोग का प्रसार (Mode of Spread)- रोग के कीटाणु बिन्दु संक्रमण तथा प्रत्यक्ष संपर्क द्वारा फ़ैलतें हैं। यानि की रोगी के खाँसनें ,बोलने व छिंकनें से उसके पास बेठे व्यक्तियों तक। इसका संक्रमण प्रायः उस समय फैल जाता है जब कि रोग की अभी ठीक प्रकार से जांच भी नहीं  हुई होती।  क्योंकि खांसी  में विशेष प्रकार की आवाज (Whoop) रोग शुरू होने के काफ़ी दिन बाद आने लगती है। तब तक रोगी बालक  अपने साथियों को कीटाणु दे चुका होता है।

 रोग के लक्षण (Symptoms)- जीवाणु स्वसन प्रणाली के ऊपरी भागों को प्रभावित करता है तथा रोग सामान्य  खाँसी की भांति ही शुरू होता हैं । धीरे –धीरे खांसी उग्र रूप धारण कर लेती है। खाँसते-खांसते बच्चे का मुँह लाल हो जाता है, जुबान बाहर  निकल आती है, पसीना आने सगता है तथा थूक व  बलगम में  खून आता है।

धीरे-धीरे खाँसने के साथ एक अजीब आवाज आने लगती है तथा अन्त में वमन भी होने लगता है। यह सब बहुत कष्टदायक होता है तथा बच्चे को इस प्रकार की खांसी के लंबे –लंबे दौरे से गुजरना पड़ता है।   कई बार तो खांसते-खांसते बालक का मल मूत्र भी त्याग हो जाता है। यदि सही उपचार न हो तथा यह रोग बिगड़ जाए तो कई प्रकार की जातिलताएं आती हैं,जैसे –दौरे पड़ना ,हरनिया व निमोनियाँ आदि भी उत्पन होते हैं ।  

बचाव  तथा नियंत्रण (Prevention and Control)-   संक्रमण पर नियंत्रण रखने के लिये तथा रोगी की देखभाल के लिये निम्नलिखित उपाय करें- (1) रोग की जाँच शीघ्र अति शीघ्र हो जानी चाहिए ताकि रोगी को बाकी बच्चों से अलग रखा जा सके तथा संक्रमण के संचार को रोका जा सके।

(2) रोगी को लगभग छः सप्ताह के लिये अलग करना आवश्यक है। उसे दूसरे बच्चों के साथ मिलने-जुलने न दिया जाए तथा उसके वर्तन, कपड़े आदि अलग रखे जाएं।

(3) रोगों के विसर्जनों को जला दिया जाए।

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