महाकवि कबीरदास का जीवन परिचय और शिक्षाएँ।

कबीरदास या कबीर, 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। वे अंधविश्वास, पाखंड, व्यक्ति पूजा और धार्मिक भेदभाव के प्रखर विरोधी थे। उन्होंने समाज में जाति और धर्म के बंधनों को तोड़ने का प्रयास किया और भक्ति आंदोलन को गहराई से प्रभावित किया। उनकी रचनाएँ सिखों के गुरु ग्रंथ साहिब में भी सम्मिलित हैं। कबीर परमात्मा में विश्वास रखते थे और समाज में व्याप्त कुरीतियों की कठोर आलोचना करते थे।
जीवन परिचय
कबीरदास का जन्म काशी के लहरतारा तालाब में 1398 ई. (संवत 1455) में ज्येष्ठ पूर्णिमा को हुआ था। कबीर सागर के अनुसार, वे ब्रह्ममुहूर्त में प्रकट हुए और नीरू-नीमा नामक जुलाहा दंपति ने उनका पालन-पोषण किया। उन्होंने जुलाहे का कार्य करते हुए अपना जीवन व्यतीत किया। कबीरदास को अपने विचारों के कारण समाज में 52 बार कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ा, लेकिन वे अडिग रहे।
गुरु रामानंद से दीक्षा
कबीरदास रामानंद जी को गुरु बनाना चाहते थे, लेकिन वे नीची जाति को दीक्षा नहीं देते थे। एक दिन, कबीर जी बालक रूप में घाट की सीढ़ियों पर लेट गए। अंधेरे में रामानंद जी का पैर उन पर पड़ गया, जिससे उन्होंने 'राम-राम' कहकर उन्हें उठाया। इस प्रकार, रामानंद जी उनके गुरु बने और जाति-भेद की संकीर्णता को त्याग दिया।
दिव्य धर्म यज्ञ
एक बार कबीर जी को नीचा दिखाने के लिए विरोधियों ने एक भंडारे की झूठी खबर फैलाई कि वहाँ भोजन के साथ सोने की मोहरें मिलेंगी। इस कारण लाखों लोग वहाँ एकत्र हुए। तभी एक व्यापारी केशव बंजारा आया, जो 9 लाख बैलों पर भंडारे का सामान लाया था। कहा जाता है कि यह स्वयं परमात्मा की लीला थी। इस घटना के बाद, अनेकों ने कबीर जी का शिष्यत्व स्वीकार किया।
भाषा और कृतियाँ
कबीर की भाषा सधुक्कड़ी थी, जिसमें अवधी, ब्रज, राजस्थानी और पंजाबी का मिश्रण था। उनकी मुख्य रचनाएँ थीं:
- बीजक – जिसमें रमैनी, सबद और साखी हैं।
- कबीर ग्रंथावली – उनके पद और दोहों का संग्रह।
- कबीर सागर – जिसमें आध्यात्मिक ज्ञान का वर्णन है।
- गुरु ग्रंथ साहिब में उनके 226 पद सम्मिलित हैं।
धार्मिक विचार
कबीर ने मूर्तिपूजा, कर्मकांड और धार्मिक आडंबरों का विरोध किया। वे एक परमेश्वर की भक्ति पर बल देते थे। उनके दोहे जनमानस को प्रेरित करते हैं:
"जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।"
वे कहते थे कि मनुष्य जन्म दुर्लभ है और इसे व्यर्थ नहीं गँवाना चाहिए:
"मानुष जन्म दुर्लभ है, मिले न बारंबार।
तरुवर से पत्ता टूट गिरे, बहुरि न लागे डार।।"
कबीर जी का योगदान केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक सुधारों में भी महत्वपूर्ण था। उनकी शिक्षाएँ आज भी प्रासंगिक हैं और जीवन का मार्गदर्शन करती हैं।