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आधुनिक भारत की कृषिक वर्ग संरचना में हुए परिवर्तनों का उल्लेख कीजिए।

आर्थिक जीवन व्यवस्थित करने की पद्धति के रूप में इसका महत्व काफी कम हो गया है।

 
हिंदी साहित्य
पारंपरिक भारतीय समाज जाति व्यवस्था के इर्द-गिर्द संगठित था।

 पारंपरिक भारतीय समाज जाति व्यवस्था के इर्द-गिर्द संगठित था। कृषीय संबंध जजमानी प्रथा के मानको द्वारा शासित होते थे। तथापि उपनिवेशी शासकों द्वारा भारतीय कृषि में परिवर्तन प्रारंभ करने के बाद से जजगात संबंध विवाहित होने लगे।

स्वतंत्रता के पश्चात् की अवधि के दौरान भारतीय सरकार द्वारा प्रारंभ की गई आधुनिकीकरण और विकास की प्रक्रिया ने पारंपरिक सामाजिक संरचना को और अधिक कमजोर किया। समकालीन भारतीय समाज में जाति एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक संस्था तो बनी हुई है लेकिन आर्थिक जीवन व्यवस्थित करने की पद्धति के रूप में इसका महत्व काफी कम हो गया है।

यद्यपि भारत के अधिकांश हिस्सों में कृषि भूमि पर अभी भी पारंपरिक रूप से खेती करने वाले जाति समूहों का स्वामित्व है, परंतु भूमिहीन नीचा फाम वारने वाले लोगों से उनके संबंध अब जाति प्रणाली के मानकों द्वारा नियंत्रित नहीं किए जाते।

नीची जाति के भूमिहीन सदस्य अब कृषि श्रमिकों के रूप में खेतिहर किसानों के साथ काम करते हैं। हम यह कह सकते हैं कि एक अर्थ में भारतीय ग्रामीण क्षेत्र में जाति की जगह वर्ग ने ले ली है। तथापि यो कृमिक सामाजिक सरवना अभी भी विविधताओं से परिपूर्ण है।

थार्नर ने भारत में कृषिक वर्ग संरचना के निम्नलिखित मॉडल को सुझाया:

(1) मालिक, जिनको मुख्य रूप से मृदा में संपत्ति अधिकारों से आय की प्राप्ति होती है और जिनकी सामान्य रुचि यह रहती है कि किरायों का स्तर उच्च बना रहे जबकि मजदूरी-स्तर निम्न बना रहे। वे काश्तकारों उप-काश्तकारों और हिस्सेवारों से किराया एकत्र करते हैं। इनको दो अन्य श्रेणियों में भी विभाजित किया जा सकता हैः

(क) बड़े भू-स्वामी जिनका बड़े-बड़े भूभागों पर अधिकार होता है जो कई गाँवों में फैले होते हैं, वे अनुपस्थित स्वामी/लगान उपजीवी होते हैं जिनको भूमि के प्रबंधन या सुधार में कोई भी दिलचस्पी नहीं होती,

(ख) धनी भू-स्वामी, जिनके पास पर्याप्त जोत क्षेत्रों का स्वामित्व होता है लेकिन यह सामान्यतः उसी गाँव में होता है और यद्यपि ये खेती का कोई काम नहीं करते लेकिन खेती का निरीक्षण करते हैं और भूमि के प्रबंधन और सुधार में व्यक्तिगत रूप से रुचि लेते हैं।

(2) किसान वे कामकाजी किसान जो भूमि के लघु खंडों के स्वामी होते हैं और जो अधिकतर अपने और अपने परिवार के सदस्यों के परिश्रम से खेती का कार्य करते हैं। इनके पास मालिकों की तुलना में बहुत कम भूमि होती है। इन्हें भी दो उप-श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है:

(क)  लघु भूस्वामी जिनके पास परिवार की सहायता के लिए पर्याप्त जाट होती हैं,

(ख) वास्तविक कास्तकार जिनके पास कीसी भी भूमि का स्वामित्व तो नहीं होता लेकिन वे पर्याप्त रूप से बड़े जोतक्षेत्र पर खेती करते हैं जिससे उन्हे मजदूरों के रूप में काम किए बिना ही अपने परिवारों का भरण पोषण करने में मदद मिलती हैं ।    

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