हिंदी साहित्य के भारतेन्दु युग पर निबंध
भारतेन्दु काल की परिस्थितियों से तो आप परिचित ही है। उस युग में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमधन’, बालमुकुन्द गुप्त, राधाचरण गोस्वामी जैसे प्रमुख निबन्धकार हुए।
भारतेन्दु जीके निबन्ध भी अनेक विषयों पर हैं। ‘काश्मीर कुसुम’ ‘उदयपुरोदय’, ‘कालचक्र’, ‘बादशाह दर्पण’-ऐतिहासिक, ‘वैद्यनाथ धाम’, ‘हरिद्वार’, सरयू पार की यात्रा’ : विवरणात्मक, ‘कंकण स्तोत्र’ : व्यंग्यपूर्ण वर्णनात्मक और ‘नाटक’, ‘वैष्णवता और भारतवर्ष’ विचारात्मक निबन्ध हैं। भारतेन्दु सबसे अधिक सफल हुए अपने व्यंगात्मक निबन्धों में। ‘लेवी प्राणलेवी’, ‘स्वर्ग में विचार-सभा का अधिवेशन’, ‘पाँचवें पैगम्बर’, ‘अंग्रेज स्त्रोत’, कंकड़ स्तोत्र’ आदि में गजब का हास्य-व्यंग्य है ही ‘सरयू पार की यात्रा’ में भी भारतेन्दु अपने व्यंग्य का बढ़िया नमूना उपस्थित करते हैं। जैसे : वाह रे बस्ती। झक मारने बसती है। अगर बस्ती इसी को कहते हैं, तो उजाड़ किसे कहेंगे?
इनके निबन्धों की भाषा स्वच्छ और श्लेषपूर्ण है। कहीं-कहीं तो उर्दू की बढ़िया शैली भी आपने उपस्थित की। भाव और विचार की दृष्टि से युग की वे सभी विशेषताएं इनमें भी हैं जो भट्ट जी या प्रतापनारायण मिश्र में हैं।
बालकृष्ण भट्ट अपने समय के सर्वश्रेष्ठ निबन्धकार कहला सकते हैं। इन्हें हिन्दी का ‘मान्तेन, कहा जाता है। भट्ट जी ने सभी प्रकार के निबन्ध लिखे। ‘मेला-ठेला’, ‘वकील’ : वर्णनात्मक, ‘आंसू’, ‘चन्द्रोदय’, ‘सहानुभूति’, ‘आशा माधुर्य’, ‘खटका’ : भावात्मक ‘आत्म-निर्भरता’, ‘कल्पना-शक्ति’, ‘तर्क’, और ‘विश्वास’ : विचारात्मक निबन्ध हैं। ‘खटका’, ‘इंगलिस पढ़े तो बाबू होय’, ‘रोटी तो कमा खाय किसी भांति’, ‘मुछन्दर’, ‘अकल अजीरन राग’ आदि निबन्धों में मस्ती, हास-परिहास, विनोद-व्यंग्य सभी कुछ हैं। ऐसे निबन्धों की भाषा चलती और दैनिक व्यवहार की है। भट्ट जी की भाषा विषय के अनुकूल और अपने समय में सबसे अधिक मंजी हुई सबल और प्रभावशाली है। समाज, व्यक्ति, जीवन, धर्म, दर्शन, राष्ट्र, हिन्दी : सभी विषयों पर आपने लिखा। जन-साहित्य को जन-भाषा में लिखने वालों में प्रतापनारायण मिश्रका नाम सर्वप्रथम आएगा। इनके व्यक्तित्व और निबन्धों में निराला आकर्षण है। लापरवाही, चुभता व्यंग्य, गुदगुदीभरा विनोद इनकी रचनाओं की विशेषताएँ हैं। इस युग में इतनी चुलबुली भाषा लिखने वाला और कोई नहीं हुआ। यह ‘ब्राह्मण’ नामक पत्र निकालते थे, जिसमें इनके निबन्ध छपते थे। छोटे-छोटे विषयों पर इतने बढ़िया, मनोरंजन और उच्च उद्देश्य को लेकर किसी लेखक ने नहीं लिखा। ‘नाक’, ‘भौह’, ‘वृद्ध’, ‘दांत’, ‘पेट’, ‘मृच्छ’ आदि विषयों को लेकर आपने अपने निबन्धों में मनोरंजन का सामान भी जुटाया और देश-प्रेम, समाज-सुधार, हिन्दी के प्रति प्रेम, स्वाभिमान, आत्म-गौरव का सन्देश भी दिया। इनकी शैली में घरेलू बोलचाल की शब्दावली तथा पूर्वी बोलियों की कहावतों और मुहावरों का प्रयोग मिलता है। लापरवाही के कारण भाषा की अशुद्धयाँ रहना साधारण बात है। ‘आत्मीयता’, ‘चिन्ता’, ‘मनोयोग’ इनके विचारात्मक निबन्ध हैं।
प्रेमघन जी अपने निरालेपन के लिए याद किए जाते हैं। उनका उद्देश्य यह नहीं था कि उनकी बात साधारण समाज तक पहुंचे, उसका मनोरंजन हो या उसके विचारों में परिवर्तन हो। कलम की करामात दिखाना ही उनका उद्देश्य था। वह स्वाभाविक, प्रवाहमय, सुबोध भाषा नहीं लिखते। बल्कि शब्दों की जड़ाई करते थे। भाषा बनावटी होते हुए भी उसमें कहीं-कहीं विवेचन की शक्ति पायी जाती है। आप ‘नागरी नीरद’ और ‘आनन्द कादम्बिनी’ नामक पत्र निकालते थे। इन्हीं में उनके निबन्ध छपा करते थे। इनके शीर्षक उनकी भाषा-शैली को प्रकट करते हैं जैसे सम्पादकीय, सम्पत्ति सीर, हास्य, हरितांकुर, विज्ञापन और वीर बधूटियां। ‘हमारी मसहरी’ और ‘हमारी दिनचर्या’ जैसे मनोरंजक लेख उन्हीं के लिखे हुए हैं। ‘फागुन’, ‘मित्र’, ‘Rतु-वर्णन उनके अच्छे निबन्ध हैं।
बावमुकुन्द गुप्त इस युग के अन्तिम और सबसे अधिक महत्वपूर्ण निबन्धकार थे। ‘शिवशम्भू’ के नाम से ‘भारतमित्र’ में वह ‘शिवसम्भू’ का चिट्ठा’ लिखा करते थे। हास्य-व्यंग्य के बहाने ‘शिवशम्भू का चिट्ठा नाम से पुस्तक रूप में प्रकाशित हुए। उनका व्यंग्य शिष्ट और नागरिक होता था। भाषा मिली-जुली हिन्दी-उर्दू। राधाचरण गोस्वामीको भी इस युग के प्रगतिशील लेखकों में गिना जाएगा। ‘यमपुर की यात्रा’ में उन्होंने धार्मिक अंधविश्वास का बहुत मजाक उड़ाया है। धार्मिक विचारों के लोग गाय की पूंछ पकड़कर वैतरणी पार करते हैं। इसमें कुत्ते के पूंछ पकड़कर वैतरणी पार कराई गई है। पहले ऐसी बात सोचना घोर पाप समझा जा सकता था।
भारतेन्दु-काल के निबन्धकारों की विशेषताएँ हैं : निबन्धों के विषयों की विविधता, व्याकरण-सम्बन्धी लापरवाही और अशुद्धयां, देशज या स्थानीय शब्दों का प्रयोग, शैली के विविध रूप और विचार-स्वतन्त्रता, समाज-सुधार, देश-भक्ति, पराधीनता के प्रति रोष आत्म-पतन पर खेद, देशोत्थान की कामना, हिन्दी-सम्मान की रक्षाभावना, हिन्दू, पर्व-त्यौहारों के लिए उत्साह और नवीन विचारों का स्वागत। निबन्ध की एक विशेष शैली भी इस युग की विशेषता है : ‘राजा भोज का सपना’ (शिवप्रसाद सितारे हिन्द), एक अद्भुत अपूर्व स्वप्न (भारतेन्दु) एक अनोखा स्वप्न (बालकृष्ण भट्ट), यमपुर की यात्रा (राधाप्रसाद गोस्वामी) : इन रचनाओं में स्वप्न के बहाने राजनैतिक अधिकार पाने, समाज सुधार तथा धर्म-संस्कार का संदेश दिया गया है