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तुलसीदास पर निबंध

गोस्वामी तुलसीदास (1511 - 1623) हिन्दी साहित्य के महान भक्त कवि थे।
 
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श्रीरामचरितमानस का कथानक रामायण से लिया गया है।

                                        
गोस्वामी तुलसीदास (1511 - 1623) हिन्दी साहित्य के महान भक्त कवि थे। रामचरितमानस इनका गौरव ग्रन्थ है। इन्हें आदिकाव्य रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है।

श्रीरामचरितमानस का कथानक रामायण से लिया गया है। ब्रजावधी में रचित श्रीरामचरितमानस लोकग्रन्थ है और इसे उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। इसके बाद ब्रजभाषा में रचित विनय पत्रिका उनका एक अन्य महत्त्वपूर्ण काव्य है। महाकाव्य श्रीरामचरितमानस को विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में 46वाँ स्थान दिया गया। तुलसीदास जी स्मार्त वैष्णव थे।[2]

जन्म
गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्मस्थान विवादित है। अधिकांश विद्वानों, अंतर्साक्ष्यों व राजकीय साक्ष्यों (‘स्टेटिस्टिकल डिस्क्रिप्टिव एंड हिस्टोरिकल अकाउंट ऑफ़ द नॉर्थ-वेस्टर्न प्रोविंसेस ऑफ़ इंडिया, वॉल्यूम-I, बुंदेलखंड, इलाहाबाद-1874’ व ‘द इंपीरियल गजेटियर ऑफ़ इंडिया, वॉल्यूम-XI, पाली टू रतिया, सेकंड एडिशन, लंदन-1886’ व ‘इंपीरियल गजेटियर ऑफ़ इंडिया, प्रोविंसियल सीरीज, यूनाइटेड प्रोविंसेस ऑफ़ आगरा एंड अवध, वॉल्यूम-II, कलकत्ता-1908’ व ‘डिस्ट्रिक्ट गजेटियर ऑफ़ बाँदा, वॉल्यूम-XXI, इलाहाबाद-1909’) के अनुसार इनकी प्रामाणिक जन्मभूमि सोरों शूकरक्षेत्र, जनपद कासगंज, उत्तर प्रदेश है। कुछ लोग इनका जन्म राजापुर जिला चित्रकूट में हुआ मानते हैं। सोरों, उत्तर प्रदेश में कासगंज जनपद के अंतर्गत एक सतयुगीन तीर्थस्थल सूकरक्षेत्र है। वहाँ पं० सच्चिदानंद शुक्ल नामक एक प्रतिष्ठित सनाढ्य ब्राह्मण रहते थे। उनके दो पुत्र थे, पं० आत्माराम शुक्ल और पं० जीवाराम शुक्ल। पं० आत्माराम शुक्ल एवं हुलसी के पुत्र का नाम तुलसीदास था, जिन्होंने श्रीरामचरितमानस महाग्रंथ की रचना की। पं० जीवाराम शुक्ल एवं चंपा के बड़े पुत्र का नाम नंददास व छोटे पुत्र का नाम चँदहास था। नंददास जी, तुलसीदास जी के सगे चचेरे भाई थे। नंददास की पत्नी कमला व पुत्र का नाम कृष्णदास था। नंददास की रचनाएँ– रसमंजरी, अनेकार्थमंजरी, भागवत्-दशम स्कंध, श्याम सगाई, गोवर्द्धन लीला, सुदामा चरित, विरहमंजरी, रूप मंजरी, रुक्मिणी मंगल, रासपंचाध्यायी, भँवर गीत, सिद्धांत पंचाध्यायी, नंददास पदावली आदि हैं।

बचपन
भगवान की प्रेरणा से शूकरक्षेत्र सोरों में रहकर पाठशाला चलाने वाले गुरु नृसिंह चौधरी ने इस रामबोला के नाम से बहुचर्चित हो चुके इस बालक को ढूँढ निकाला और विधिवत उसका नाम तुलसीदास रखा। गुरु नृसिंह चौधरी ने ही इन्हें रामायण, पिंगलशास्त्र व गुरु हरिहरानंद ने इन्हें संगीत की शिक्षा दी। तदोपरान्त बदरिया निवासी दीनबंधु पाठक की विदुषी पुत्री रत्नावली से संवत् 1589 विक्रमी में इनका विवाह हुआ, जिसके गर्भ से एक पुत्र भी इन्हें प्राप्त हुआ, जिसका नाम तारापति/तारक था, जोकि कुछ समय बाद ही काल कवलित हो गया। रत्नावली के पीहर (बदरिया) चले जाने पर ये रात में ही गंगा को तैरकर पार करके बदरिया जा पहुँचे। तब रत्नावली ने लज्जित होकर इन्हें धिक्कारा। उन्हीं वचनों को सुनकर इनके मन में वैराग्य के अंकुर फूट गए और 36 वर्ष की अवस्था में शूकरक्षेत्र सोरों को सदा के लिए त्यागकर चले गए।

भगवान श्री राम जी से भेंट
कुछ काल राजापुर रहने के बाद वे पुन: काशी चले गये और वहाँ की जनता को राम-कथा सुनाने लगे। कथा के दौरान उन्हें एक दिन मनुष्य के वेष में एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमान ‌जी का पता बतलाया। हनुमान ‌जी से मिलकर तुलसीदास ने उनसे श्रीरघुनाथजी का दर्शन कराने की प्रार्थना की। हनुमान्‌जी ने कहा- "तुम्हें चित्रकूट में रघुनाथजी दर्शन होंगें।" इस पर तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर चल पड़े।

चित्रकूट पहुँच कर उन्होंने रामघाट पर अपना आसन जमाया। एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले ही थे कि यकायक मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं। तुलसीदास उन्हें देखकर आकर्षित तो हुए, परन्तु उन्हें पहचान न सके। तभी पीछे से हनुमान जी ने आकर जब उन्हें सारा भेद बताया तो वे पश्चाताप करने लगे। इस पर हनुमान जी ने उन्हें सात्वना दी और कहा प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे।

संवत्‌ 1607 की मौनी अमावस्या को बुधवार के दिन उनके सामने भगवान श्री राम जी पुनः प्रकट हुए। उन्होंने बालक रूप में आकर तुलसीदास से कहा-"बाबा! हमें चन्दन चाहिये क्या आप हमें चन्दन दे सकते हैं?" हनुमान ‌जी ने सोचा, कहीं वे इस बार भी धोखा न खा जायें, इसलिये उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा:

चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर।
तुलसिदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥

तुलसीदास भगवान श्री राम जी की उस अद्भुत छवि को निहार कर अपने शरीर की सुध-बुध ही भूल गये। अन्ततोगत्वा भगवान ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदास जी के मस्तक पर लगाया और अन्तर्ध्यान हो गये।

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