हिंदी साहित्य : पृथ्वीराज रासो: विकास और पाठ-परंपरा।

"पृथ्वीराज रासो" हिंदी साहित्य की रासक परंपरा का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसे चंदबरदाई द्वारा रचित माना जाता है। यह काव्य पृथ्वीराज चौहान के जीवन, वीरता, युद्धों और संघर्षों का वर्णन करता है। इसकी ऐतिहासिकता को लेकर विद्वानों में मतभेद रहा है, लेकिन यह ग्रंथ मध्यकालीन हिंदी साहित्य का एक विशिष्ट उदाहरण है।
विभिन्न पाठ-परंपराएँ
प्रारंभ में "पृथ्वीराज रासो" का केवल एक विशाल रूप हिंदी जगत में प्रचलित था, जिसमें लगभग 11,000 रूपक (पद्य) थे। बाद में इसके छोटे संस्करण भी विभिन्न पांडुलिपियों में प्राप्त हुए:
- मध्यम रूप – जिसमें लगभग 3,500 रूपक थे।
- लघु रूप – जिसमें 1,200 रूपक थे।
- अन्य संक्षिप्त रूप – जिनमें क्रमशः 400 और 550 रूपक थे।
इन विभिन्न पाठों के मिलने से यह विवाद उत्पन्न हुआ कि "पृथ्वीराज रासो" का मूल रूप कौन सा था और अन्य रूपों का विकास किस क्रम में हुआ।
विकास की प्रक्रिया
प्रारंभ में कुछ विद्वानों का मत था कि सबसे बड़ा (बृहत्) पाठ ही मूल रचना थी और उससे छोटे पाठ संक्षेप रूप में विकसित किए गए। उनका तर्क था कि "पृथ्वीराज रासो" का कोई भी संस्करण पूरी तरह ऐतिहासिक नहीं है, बल्कि उसमें कल्पना और अतिशयोक्ति भी पाई जाती है।
लेकिन 1955 में एक महत्वपूर्ण शोध के बाद यह सिद्ध किया गया कि रचना के विकास का क्रम विपरीत था। अर्थात्, "पृथ्वीराज रासो" मूल रूप में लघुतम था और बाद में उसमें विस्तार हुआ।
सिद्धांत के समर्थन में तर्क
- संख्याओं की असमानता – विभिन्न पाठों में पृथ्वीराज चौहान और उनके विरोधियों की सेनाओं की संख्याएँ भिन्न-भिन्न हैं। बड़े पाठों में सेनाओं की संख्या अतिशयोक्तिपूर्ण है, जबकि छोटे पाठों में यह अपेक्षाकृत कम है। यदि संक्षेप की प्रक्रिया हुई होती, तो संख्या में इतना अंतर नहीं होना चाहिए था।
- प्रबंध संरचना – जब छंदों, प्रसंगों और कथाओं की शृंखला की तुलना की गई, तो पाया गया कि बड़े पाठों में अधिक विषय-विस्तार और नए प्रसंग जोड़े गए हैं। छोटे पाठ अधिक संगठित और तार्किक प्रतीत होते हैं।
- प्रक्षिप्त सामग्री – बृहत् पाठों में अनेक ऐसे छंद और प्रसंग पाए गए हैं, जो स्पष्ट रूप से बाद में जोड़े गए। इससे यह प्रमाणित होता है कि रचना का मूल रूप संक्षिप्त था और समय के साथ उसका विस्तार हुआ।
निष्कर्ष
शोध के आधार पर यह स्पष्ट हुआ कि "पृथ्वीराज रासो" मूल रूप में एक संक्षिप्त काव्य था, जिसे बाद में विभिन्न लेखकों और विद्वानों ने परिवर्धित किया। इस ग्रंथ की ऐतिहासिकता पर संदेह अवश्य किया जाता है, लेकिन यह मध्यकालीन हिंदी साहित्य का एक अनमोल ग्रंथ है, जो वीरता, प्रेम और संघर्ष की गाथा प्रस्तुत करता है।