कोंकणी भाषा: इतिहास, विकास और साहित्य.

कोंकणी भाषा भारतीय उपमहाद्वीप की एक महत्वपूर्ण भाषा है, जो मुख्य रूप से गोवा, महाराष्ट्र के दक्षिणी भाग, कर्नाटक के उत्तरी क्षेत्र और केरल के कुछ हिस्सों में बोली जाती है। भाषायी दृष्टि से यह एक आर्य भाषा है और इसका मराठी से घनिष्ठ संबंध है। हालांकि, ऐतिहासिक रूप से इसे अपनी स्वतंत्र पहचान के लिए संघर्ष करना पड़ा है।
भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने के बावजूद, इसे कई स्तरों पर मान्यता प्राप्त करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
कोंकणी भाषा का ऐतिहासिक विकास
कोंकणी भाषा का उद्भव और विकास भारतीय पश्चिमी तट के कोंकण क्षेत्र में हुआ। यह भाषा सदियों से विभिन्न प्रभावों के तहत विकसित हुई है। भाषावैज्ञानिकों का मानना है कि यह प्राचीन अपभ्रंशों से निकली एक स्वतंत्र भाषा है। कोंकणी भाषा का प्रारंभिक इतिहास स्पष्ट रूप से दर्ज नहीं है, लेकिन माना जाता है कि यह मध्यकाल तक एक प्रमुख संपर्क भाषा रही होगी।
ऐतिहासिक रूप से, कोंकणी भाषा को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। गोवा में पुर्तगाली शासन के दौरान, इस भाषा को दबाने का प्रयास किया गया। पुर्तगालियों ने जबरन धर्म परिवर्तन कराए और स्थानीय संस्कृति को प्रभावित करने का प्रयास किया। बावजूद इसके, स्थानीय लोगों ने अपनी मातृभाषा को बचाए रखा। दिलचस्प बात यह है कि ईसाई पादरियों ने भी इस भाषा में धार्मिक ग्रंथ लिखे, जिससे यह संरक्षित रही।
कोंकणी भाषा की लिपियाँ
कोंकणी भाषा को लिखने के लिए विभिन्न लिपियों का उपयोग किया जाता रहा है। ऐतिहासिक रूप से इसे देवनागरी, कन्नड़, मलयालम और रोमन लिपियों में लिखा गया। गोवा को राज्य का दर्जा मिलने के बाद, देवनागरी लिपि को कोंकणी की आधिकारिक लिपि घोषित किया गया, लेकिन यह विवादों से घिरा रहा।
कर्नाटक में कोंकणी आमतौर पर कन्नड़ लिपि में लिखी जाती है, जबकि ईसाई समुदाय के लोग रोमन लिपि का उपयोग करते हैं।
कोंकणी भाषा के क्षेत्रीय रूप
कोंकणी भाषा के विभिन्न क्षेत्रों में कई रूप देखने को मिलते हैं। प्रमुख रूप से इसे तीन भौगोलिक वर्गों में विभाजित किया जा सकता है:
- मालवणी और रत्नागिरी क्षेत्र की कोंकणी, जो मराठी से अत्यधिक प्रभावित है।
- दक्षिण कोंकणी (मंगलूर क्षेत्र की कोंकणी), जिस पर कन्नड़ भाषा का प्रभाव देखा जाता है।
- गोवा और कारवार क्षेत्र की कोंकणी, जिसे गोमांतकी कहा जाता है। यह भाषा का सबसे पुराना और विशुद्ध रूप माना जाता है।
कोंकणी साहित्य
कोंकणी भाषा का प्राचीन साहित्यिक इतिहास बहुत समृद्ध नहीं रहा, लेकिन 17वीं शताब्दी से इसका व्यवस्थित साहित्यिक विकास देखा गया। पहला ज्ञात कोंकणी ग्रंथ ईसाई मिशनरियों द्वारा लिखा गया था। पादरी स्टिफेंस की 1622 ई. में लिखी गई पुस्तक दौत्रीन क्रिश्तां कोंकणी भाषा का पहला दस्तावेज़ माना जाता है। इसके बाद 1640 ई. में उन्होंने पुर्तगाली भाषा में इसका व्याकरण आर्ति द लिंग्व कानारी नाम से लिखा।
धीरे-धीरे इस भाषा में साहित्यिक गतिविधियाँ बढ़ीं। 20वीं शताब्दी में, गोवा और अन्य क्षेत्रों में कोंकणी साहित्य का पुनर्जागरण हुआ। कोंकणी साहित्य में लोककथाएँ, लोकगीत, लोकनाट्य, ऐतिहासिक नाटक और आधुनिक एकांकी प्रमुख रूप से विकसित हुए हैं। आज कोंकणी भाषा में कविता, उपन्यास, नाटक और निबंधों की एक समृद्ध परंपरा है।
वर्तमान स्थिति और चुनौतियाँ
आज कोंकणी को आठवीं अनुसूची में स्थान प्राप्त होने के बावजूद इसे अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। गोवा में इसे राजभाषा का दर्जा तो मिला, लेकिन लिपि को लेकर विवाद अभी भी जारी है। मराठी और कोंकणी के बीच का संबंध इसे और अधिक जटिल बना देता है।
कोंकणी भाषा और साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए विभिन्न संस्थाएँ कार्यरत हैं। गोवा, कर्नाटक और महाराष्ट्र में कई कोंकणी भाषा अकादमियाँ स्थापित की गई हैं।
निष्कर्ष
कोंकणी भाषा अपने इतिहास, विविध लिपियों और समृद्ध साहित्य के साथ भारतीय भाषाओं के बीच एक अनूठा स्थान रखती है। इसे बचाने और बढ़ावा देने के लिए सरकारी और सामाजिक प्रयासों की आवश्यकता है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ इस भाषा की समृद्धि को बनाए रख सकें।
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